श्रीदुर्गा सप्तशती पाठ हिंदी में

श्रीदुर्गा सप्तशती पाठ हिंदी में

श्रीदुर्गा सप्तशती पाठ हिंदी में
श्रीदुर्गा सप्तशती पाठ हिंदी में

दुर्गा-पूजा पाठ, विधि तथा सामग्री

श्री दुर्गा-पूजा विशेष रूप से प्रतिवर्ष दो बार चैत्र व आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पड़वा) से प्रारम्भ होकर नवमी तक चलती है। देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा होने के कारण नवदुर्गा तथा नौ तिथियों (दिन) में पूजन होने से इन्हें नवरात्र कहा जाता है । चैत्र मास के नवरात्र 'वार्षिक नवरात्र' और आश्विन मास के नवरात्र 'शारदीय नवरात्र' कहलाते हैं ।

भगवती दुर्गा के साधक भक्त स्नानादि से शुद्ध होकर , शुद्ध वस्त्र धारण कर पूजा स्थल को सजाएँ । मण्डप में श्री दुर्गा जी की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए । मूर्ति के दाईं ओर कलश की स्थापना करनी चाहिए तथा कलश के सम्मुख मिट्टी व बालूरेत मिलाकर जौ बोने चाहिएँ । मण्डप के पूर्व कोण में दीपक की स्थापना करनी चाहिए । पूजन में सबसे पहले गणेश जी की पूजा करके सभी देवी-देवताओं की पूजा करें । तत्पश्चात जगदम्बा की पूजन करें ।

सप्तशती का पाठ न तो जल्दी जल्दी करना चाहिए और न बहुत धीरे धीरे । 
पाठ करते समय एक ही आसन से निश्चित हो अचल बैठना चाहिए ।

पूजन सामग्री :-

जल, गंगाजल, पंचामृत, दूध, दही, घी, शहद, शक्कर, रेशमी वस्त्र, उपवस्त्र, नारियल, चन्दन, रोली, कलावा(मोली), अक्षत, पुष्प, पुष्पमाला, जयमाला, धूप, दीप, नेवैद्य, ऋतुफल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, आसन, चौकी, पूजन पात्र, आरती, कलश ।

नवदुर्गा की प्रार्थना करने से पहले मस्तक पर भस्म, चन्दन, रोली का टीका लगाना चाहिए ।
नवदुर्गा की प्रार्थना के पश्चात कवच का पाठ करना चाहिए । 
इसके बाद अर्गला और कीलक का पाठ करें । 
इसके पश्चात रात्रि सूक्त का पाठ करें । 
इतना कर लेने के बाद सप्तशती का पाठ प्रारम्भ करना चाहिए ।

श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ 13 अध्यायों में वर्णित है
इन 13 अध्यायों में माँ भगवती के तीन चरित्रों का वर्णन है ।

प्रथम चरित्र- पहले अध्याय में 'मधु व कैटभ' नामक दो राक्षसों के वध का वर्णन है ।
द्वितीय चरित्र- इसमें दुसरे अध्याय से चतुर्थ अध्याय तक 
महिषासुर नामक राक्षस के वध का वर्णन किया गया है ।
तृतीय चरित्र- इसमें पंचम अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक 
शुम्भ-निशुम्भ आदि राक्षसों के वध का वर्णन किया गया है ।
बारहवें अध्याय में आदिशक्ति माँ के तीनों चरित्रों का पाठ करने का महत्त्व बताया गया है ।
तेरहवें अध्याय में राजा सुरथ एवं समाधि नामक वैश्य को देवी द्वारा दिए वरदानों का वर्णन किया गया है ।
नौ दिनों में इन 13 अध्यायों का पाठ करके अंतिम दिन (नवें दिन) माँ का भोग, दुर्गा चालीसा, विन्ध्येश्वरी चालीसा, स्रोत एवं आरती करके समापन करते हैं ।

प्रार्थना :-

हे करुणामयी , जगजननी , स्नेहमयी एवं आनन्द देने वाली माँ ! आपकी सदा जय हो । हे जगदम्बे ! पंखहीन पक्षी और भूख से बिलबिलाते बच्चे जिस प्रकार अपनी माँ की प्रतीक्षा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी आपकी दया की प्रतीक्षा कर रहा हूँ । हे अमृतमयी माँ ! आप शीघ्रताशीघ्र मुझे दर्शन देने की कृपा करें । मुझे ऐसी बुद्धि प्रदान करिए जिससे मैं आपका रहस्य जान सकूँ ।

पहला दिन

१ . शैलपुत्री

मां शैलपुत्री बीज मंत्र :-
ह्रीं शिवायै नम:

प्रार्थना मंत्र :-

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥

माँ दुर्गा का पहला स्वरुप शैलपुत्री का है । पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनको शैलपुत्री कहा गया । यह वृषभ पर आरूढ़ दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएँ हाथ में कमल पुष्प धारण किए हैं । यह नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं । नवरात्र पूजन में पहले दिन इन्हीं का पूजन होता है । प्रथम दिन की पूजा में योगीजन अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं । यहीं से उनकी योग साधना शुरू होती है ।

पाठ आरम्भ

जय-जयकार करो माता की , आओ शरण भवानी की ।
एक बार सब प्रेम से बोलो , जय दुर्गे महारानी की ॥
पहली देवी शैलपुत्री हैं , किए बैल की सवारी ।
अर्ध चन्द्र माथे सोहे ,सुन्दर रूप मनोहारी ॥
लिए कमण्डल फूल कमल रुद्राक्षों की माला ।
हुई दूसरी ब्रह्मचारिणी , करें जग में उजियारा॥
पूर्णचन्द्रमा सी शोभित है देवी चन्द्रघण्टा माता ।
इनके सुमिरन निर्बल भी ,सबल शत्रु पर जय पाता ॥
चौथी देवी कुष्माण्डा हैं , इनकी लीला है न्यारी ।
अमृत भरा कलश है कर में , किए बाघ की सवारी ॥
कर में कमल सिंह पर आसन , सबका शुभ करने वाली ।
मंगलमयी स्कन्दमाता हैं ,जग के दुःख हरने वाली ॥
मुनि कात्यायन की कन्या हैं , सबकी कात्यायनी माँ ।
दानवता की शत्रु और मानवता की सुखदायनी माँ ॥
सप्तम कालरात्री हैं , देवी महाप्रलय ढाने वाली ।
प्राणी मात्र की रक्षा करती , महाकाल को खाने वाली ॥
श्वेत बैल है वाहन जिनका , तन पर श्वेताम्बर माला ।
यही महागौरी देवी हैं , सबकी जगदम्बा माता ॥
शंख , चक्र और गदा पद्म ,कर में धारण करने वाली ।
यही सिद्धिदात्री देवी हैं , ऋद्धि-सिद्धि देने वाली ॥
जय कल्याणमयी नवदुर्गे , जय हो शक्तिदायनी माँ ।
जयति-जयति चण्डी नवदुर्गे , जय गिरिजा महारानी माँ ॥

दुर्गा कवच

मार्कण्डेय जी ने कहा:- “हे पितामह! जो इस साधन संसार में परम गोपनीय हैं तथा जिनसे मनुष्य मात्र की रक्षा होती है और जिसे अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो , ऐसा कोई साधन मुझे बताइए ।
ब्रह्मा जी बोले: ब्रह्मन्! सभी प्राणियों की रक्षा करने वाला ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उद्धार करने वाला है । महामुने! उसे श्रवण करो ।
देवी की नौ शक्तियाँ हैं, जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं| उनके पृथक-पृथक (अलग-अलग) नाम बतलाये जाते हैं. प्रथम शक्ति नाम शैलपुत्री है, दूसरी शक्ति का नाम ब्रह्मचारिणी है, तीसरा शक्ति स्वरुप चंद्रघंटा के नाम से प्रसिद्ध है, चौथी शक्ति को कूष्मांडा कहते हैं| पांचवी दुर्गा का नाम स्कंदमाता है, देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं, सातवाँ स्वरुप कालरात्रि और आठवाँ स्वरुप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है| नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है| ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं|

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रु से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी अमंगल नहीं होता| युद्ध के समय में संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखाई देती| उन्हें शोक दुःख और भय की प्राप्ति नहीं होती| जिन्होंने भक्ति पूर्वक देवी का स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है| देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिंतन करते हैं, उनकी तुम निस्संदेह रक्षा करती हो|

प्रथम चामुण्डा देवी प्रेत के वाहन पर आरूढ़ होती हैं, वाराही महिष(भैंसे) पर सवारी करती हैं, ऐन्द्री का वाहन ऐरावत (हाथी) है, वैष्णवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं| माहेश्वरी वृषभ(बैल) पर आरूढ़ होती हैं, कौमारी का वाहन मयूर(मोर) है| भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मी देवी कमल के आसन पर विराजमान हैं और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं| वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है, सरस्वती(ब्राह्मी) देवी हंस पर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं|
इस प्रकार ये सभी मातायें सब प्रकार की योग शक्तियों से सम्पन्न हैं. इनके सिवा और भी बहुत सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं| ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिए रथ पर बैठी हुई दिखाई देती हैं| ये शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मुसल, खेटक और तोमर, परशु, पाश, कुंत और त्रिशूल एवं उत्तम शारंग धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथों में धारण करती हैं| दैत्यों के शरीर का नाश करना, भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना! यही उनके शास्त्र धारण का उद्देश्य है |
महान रौद्ररूप, अत्यंत घोर पराक्रम, महान बल और महान उत्साह वाली देवी! तुम महान भय का नाश करने वाली हो तुम्हें नमस्कार है| तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है| शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली जगदम्बिके! मेरी रक्षा करो| पूर्व दिशा में ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति) मेरी रक्षा करें| अग्निकोण में अग्निशक्ति मेरी रक्षा करें| दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्य कोण में खड्गधारिणी मेरी रक्षा करें| पश्चिम दिशा में वारुणी और वायव्य कोण में मृग पर सवारी करने वाली देवी मेरी रक्षा करें| उत्तर दिशा में कौमारी और ईशान कोण में शूलधारिणी रक्षा करें| ब्रह्माणि! तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करें| इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनाने वाली चामुंडा देवी दासों दिशाओं से मेरी रक्षा करें, जया आगे से और विजया पीछे की और से मेरी रक्षा करें|
वाम भाग में अजित और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करें| उद्योतिनी शिखा की रक्षा करें| उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करें | ललाट में मालाधारी रक्षा करें और यशस्विनी मेरी भौहों का संरक्षण करें| भौहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघंटा देवी रक्षा करें| दोनों नेत्रों के मध्य भाग में शंखिनी और कानों में द्वारवासिनी रक्षा करें| कालिका देवी कपोलों की तथा भगवती शांकरी कानों के मूल की रक्षा करें| नासिका में सुगंधा और ऊपर के ओठ में चर्चिका देवी रक्षा करें| नीचे के ओठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती देवी रक्षा करें| कौमारी दाँतों की और चंडिका कंठप्रदेश की रक्षा करें| चित्रघंटा गले की घांटी की और महामाया तालु में रहकर रक्षा करें| कामाक्षी ठोढ़ी की और सर्वमंगला मेरी वाणी की रक्षा करें| भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदंड) में रहकर रक्षा करें| कंठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कंठ की नली में नलकूबरी रक्षा करें| दोनों कधों में खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करें| दोनों हाथों में दंडिनी और अँगुलियों में अम्बिका रक्षा करें| शूलेश्वरी नखों की रक्षा करें| कुलेश्वरी कुक्षि (पेट) में रहकर रक्षा करें| महादेवी दोनों स्तनों की और शोकविनासिनी देवी मन की रक्षा करें|
ललिता देवी ह्रदय में और शूलधारिणी उदार में रहकर रक्षा करें | नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करें| पूतना और कामिका लिंग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करें| भगवती कटिभाग में और विंध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करें| सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली महाबला देवी दोनों पिंडलियों की रक्षा करें | नारसिंही दोनों घुट्टियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठ भाग की रक्षा करें| श्रीदेवी पैरों की अँगुलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करें | अपनी दाढ़ों के कारण भयंकर दिखने वाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशों की रक्षा करें| रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करें| पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और मेद की रक्षा करें| आतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करें | मूलाधार आदि कमल-कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूणामणि देवी स्थित होकर रक्षा करें| नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करें| जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्य देवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करें | ब्रह्माणि! आप मेरे वीर्य की रक्षा करें छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्मधारिणी देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धि की रक्षा करें |
हाथ में वज्र धारण करने वाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करें| कल्याण से शोभित होने वाली भगवती कल्याणशोभना मेरे प्राण की रक्षा करें | रस, रूप, गंध, शब्द और स्पर्श- इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करें तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करें | वाराही आयु की रक्षा करें, वैष्णवी धर्म की रक्षा करें तथा चक्रिणी देवी यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा विद्या की रक्षा करें | इंद्राणी! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें, चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो| महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे | मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी रक्षा करे| राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजय देवी सम्पूर्ण भयों से रक्षा करें | देवि! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो; क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो |
यदि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी ना जाय, कवच का पाठ करके ही यात्रा करे| कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है, वहां-वहां उसे धन लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाली विजय की प्राप्ति होती है| वह जिस-जिस अभीष्ट वास्तु का चिंतन करता है, उस-उस को निश्चय ही प्राप्त कर लेता है| वह पुरुष इस पृथ्वी पर तुलनारहित महान ऐश्वर्य का भागी होता है | कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है| युद्ध में उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है |
देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है| जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है, उसे दैवी कला प्राप्त होती है तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता| इतना ही नहीं, वह अमृत्यु से रहित हो सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है | मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियां नष्ट हो जाती हैं| कनेर, भांग, अफीम, धतूरे आदि का स्थावर विष, सांप और बिच्छू आदि के काटने से चढ़ा हुआ जंगम विष तथा अहिफेन और तेल के संयोग आदि से बनने वाला कृत्रिम विष! ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं, उनका कोई भी असर नहीं होता |
इस पृथ्वी पर मारण, मोहन, आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के जितने मंत्र-यंत्र होते हैं, वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं| ये ही नहीं, पृथ्वी पर विचारने वाले ग्राम देवता, आकाशचारी देवविशेष, जल के सम्बन्ध से प्रकट होने वाले गण, उपदेश मात्र से सिद्ध होने वाले निम्नकोटि के देवता | अपने जन्म के साथ प्रकट होने वाले देवता, कुलदेवता, माला (कंठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अंतरिक्ष में विचारने वाली भयानक डाकिनियाँ, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी ह्रदय में कवच धारण किये रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं| कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान-वृद्धि प्राप्त होती है| यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है |
कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता है| जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों (जंगलों) सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परंपरा बनी रहती है, फिर देह का अंत होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से उस नित्य परमपद को प्राप्त होता है जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है | वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याणमय शिव के आनंद का भागी होता है |
इति श्री देवी कवच संपूर्ण

अर्गला स्तोत्र

ॐ नमश्चण्डिकायै (ॐ चंडिका देवी को नमस्कार है।)
मार्कण्डेय जी कहते हैं : जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा – इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार है। देवी चामुण्डे! तुम्हारी जय हो। सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली देवी! तुम्हारी जय हो। सब में व्याप्त रहने वाली देवी! तुम्हारी जय हो। कालरात्रि! तुम्हें नमस्कार है।
मधु और कैटभ को मारने वाली तथा ब्रह्माजी को वरदान देने वाली देवी! तुम्हे नमस्कार है। तुम मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान) दो, जय (मोह पर विजय) दो, यश (मोह-विजय और ज्ञान-प्राप्तिरूप यश) दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।। महिषासुर का नाश करने वाली तथा भक्तों को सुख देने वाली देवी! तुम्हें नमस्कार है। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो | रक्तबीज का वध और चण्ड-मुण्ड का विनाश करने वाली देवी! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। शुम्भ और निशुम्भ तथा धूम्रलोचन का मर्दन करने वाली देवी! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो |
सबके द्वारा वन्दित युगल चरणों वाली तथा सम्पूर्ण सौभग्य प्रदान करने वाली देवी! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। देवी! तुम्हारे रूप और चरित्र अचिन्त्य हैं। तुम समस्त शत्रुओं का नाश करने वाली हो। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो | पापों को दूर करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारे चरणों में सर्वदा (हमेशा) मस्तक झुकाते हैं, उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। रोगों का नाश करने वाली चण्डिके! जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते हैं, उन्हें तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो | चण्डिके! इस संसार में जो भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करते हैं उन्हें रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।
मुझे सौभाग्य और आरोग्य (स्वास्थ्य) दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो | जो मुझसे द्वेष करते हों, उनका नाश और मेरे बल की वृद्धि करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। देवी! मेरा कल्याण करो। मुझे उत्तम संपत्ति प्रदान करो। रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। अम्बिके! देवता और असुर दोनों ही अपने माथे के मुकुट की मणियों को तुम्हारे चरणों पर घिसते हैं तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।तुम अपने भक्तजन को विद्वान, यशस्वी, और लक्ष्मीवान बनाओ तथा रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। प्रचंड दैत्यों के दर्प का दलन करने वाली चण्डिके! मुझ शरणागत को रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। चतुर्भुज ब्रह्मा जी के द्वारा प्रशंसित चार भुजाधारिणी परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।
देवी अम्बिके! भगवान् विष्णु नित्य-निरंतर भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करते रहते हैं। तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। हिमालय-कन्या पार्वती के पति महादेवजी के द्वारा होने वाली परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। शचीपति इंद्र के द्वारा सद्भाव से पूजित होने वाल परमेश्वरि! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। प्रचंड भुजदण्डों वाले दैत्यों का घमंड चूर करने वाली देवी! तुम रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो। देवी! अम्बिके तुम अपने भक्तजनों को सदा असीम आनंद प्रदान करती हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो ।। मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसार से तारने वाली तथा उत्तम कुल में जन्मी हो।
जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करके सप्तशती रूपी महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती की जप-संख्या से मिलने वाले श्रेष्ठ फल को प्राप्त होता है। साथ ही वह प्रचुर संपत्ति भी प्राप्त कर लेता है।
इति श्री देवी अर्गला स्तोत्रं संपूर्ण

कीलक स्तोत्र

श्री जगदम्बा जी की प्रसन्नता हेतु नवरात्र व्रत में इस स्त्रोत का विनियोग है ।
ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है ।
मार्कण्डेय जी कहते हैं: विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, तीनों वेद ही जिनके तीन नेत्र हैं, जो मोक्ष प्रदान करने वाले हैं तथा अपने मस्तक पर अर्धचंद्र धारण करते हैं, उन भगवान् शिव को नमस्कार है। मन्त्रों का जो अभिकीलक है अर्थात मन्त्रों की सिद्धि में विघ्न उपस्थित करने वाले शापरूपी कीलक का निवारण करने वाला है, उस सप्तशती स्तोत्र को सम्पूर्ण रूप से जानना चाहिए (और जानकर उसकी उपासना करनी चाहिए।
उसके भी उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध होते हैं उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति होती है; तथापि जो अन्य मन्त्रों का जप न करके केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्र से ही देवी की स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुति मात्र से ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी देवी सिद्ध हो जाती हैं। उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के लिये मंत्र, औषधि तथा अन्य किसी साधन के उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती | बिना जप के उनके उच्चाटन आदि समस्त अभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं। इतना ही नहीं ,उनकी संपूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती है | लोगों के मन में यह शंका थी कि ‘जब केवल सप्तशती की उपासना से भी सामान रूप से अथवा सप्तशती को छोड़कर अन्य मंत्रो की उपासना से भी सामान रूप से सब कार्य सिद्ध होते है, अब इनमे श्रेष्ठ कौन सा साधन है?’ लोगों की इस शंका को सामने रखकर भगवान् शंकर ने अपने पास आए हुए जिज्ञासुओं को समझाया की यह सप्तशती नामक संपूर्ण स्रोत ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है तदनन्तर भगवती चण्डिका के सप्तशती नामक स्त्रोत को महादेव जी ने गुप्त कर दिया| सप्तशती के पाठ से जो पुण्य प्राप्त होता है, उसकी कभी समाप्ति नहीं होती, किंतु अन्य मंत्रो के जपजन्य पुण्य की समाप्ति हो जाती है, अतः भगवान् शिव ने अन्य मंत्रो की अपेक्षा जो सप्तशती की ही श्रेष्ठता का निर्णय किया उसे जानना चाहिए।
अन्य मंत्रो का जप करने वाला पुरुष भी यदि सप्तशती के स्त्रोत और जप का अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्ण रूप से ही कल्याण का भागी होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है, जो साधक कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी को एकाग्रचित होकर भगवती की सेवा में अपना सर्वस्वा समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसाद रूप से ग्रहण करता है, उसी पर भगावती प्रसन्न होती है, अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती, इस प्रकार सिद्धि के प्रतिबंधक रूप कीलके महादेव जी ने इस स्त्रोत को कीलित कर रखा है। जो पूर्वोक्त रीति से निष्कीलन करके इस सप्तसती स्त्रोत का प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारणपूर्वक पाठ करता है, वह मनुस्य सिद्ध हो जाता है, वही देवी का पार्षद होता है और वही गांधर्व भी होता है । सर्वत्र विचरते रहने पर भी इस संसार में उसे कहीं भी भय नहीं होता | वह अपमृत्यु के वश में नहीं पड़ता तथा देह त्यागने के अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
अतः कीलन को जानकर उसका परिहार करके ही सप्तसती का पाठ आरंभ करे, जो ऐसा नही करता उसका नाश हो जाता है, इसलिए कीलक और निष्कीलन का ज्ञान प्राप्त करने पर ही यह स्त्रोत निर्दोष होता है और विद्वान् पुरुष इस निर्दोष स्तोत्र का ही पाठ आरंभ करते है। स्त्रियों में जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृश्टिगोचर होता है, वह सब देवी के प्रसाद का ही फल है | अतः इस कल्याणमय स्त्रोत का सदा जप करना चाहिए।
इस स्त्रोत का मंद स्वर से पाठ करने पर स्वल्प फल की सिद्धि है, अतः उच्च स्वर से ही इसका पाठ आरंभ करना चाहिए जिनके प्रसाद से ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्ष की भी सिद्धि होती है, उन कल्याणमयी जगदम्बा की स्तुति अवश्य करनी चाहिए |
इति श्री देवी कीलक स्तोत्र सम्पूर्ण

रात्रि सूक्त

महत्तत्त्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न कियेहुए जगत के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिए समस्त विभूतियों को धारण करती हैं ।

ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को, नीचे फैलने वाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं ।

परा चिच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार का नाश हो जाता है ।

ये रात्रिदेवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों,हों जिनके आनेपर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं- ठीक वैसे ही, जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षोंपर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं ।

उस करुणामयी रात्रि देवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़ने वाले पक्षी एवंपतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करने वाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं ।

हे रात्रिमयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को दूरहटाओ। तदनन्तर हमारे लिए सुख पूर्वक तरने योग्य हो जाओ- मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ।

हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी ! सब और फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुंचा है। तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो- जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण से उऋण करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी मिटा दो ।

हे रात्रिदेवी! तुम दूध देने वाली गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। हे परम व्योमस्वरूपपरमात्मा की पुत्री! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँती मेरे इस हर्विय को भी ग्रहण करो।

श्रीदुर्गा सप्तशती तीसरा अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती चौथा अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती पाँचवा अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती छठवां अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती सातवाँ अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती आठवाँ अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती नौवाँ अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती दसवाँ अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती ग्यारवाँ अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती बारहवाँ अध्याय
श्रीदुर्गा सप्तशती तेरहवाँ अध्याय

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